Wednesday, February 6, 2019

ज़माना

फूंकती थी एक दिन माँ,
फूंकनी से चूल्हा,
बिना थके हर दिन में,
वो काम करती पूरा,
हर रोज तो सुबह उठ के,
पीसती चक्की से चून,
चाहे दिसम्बर जनवरी हो,
या हो महीना जून,
मेहमान देवता समान था तब,
अजनबियों का भी सम्मान था तब,
प्रेम और सौहार्द से,
जीवन परिपूर्ण था,
प्राणी मात्र की सेवा में ही,
जीवन सम्पूर्ण था,
हर व्यक्ति तब श्रमशील था,
उस समय का मानव पुरुषार्थी बलवीर था,
पर आज के समाज की,
परिस्थिति कुछ और है,
समाज में तो स्वार्थता है,
सदाचार तो गौण है,
चूल्हे का स्थान,
गैस सिलेंडर ने ले लिया,
लगभग हर काम घर का,
मशीनों पर निर्भर हुआ,
सम्मान अजनबियों का क्या,
अपनों के लिये समय नहीं,
समन्वय और सहयोग की,
अब जीवन में जगह नहीं।

              -अनुराधा यादव

No comments:

Post a Comment