हर रोज की तरह आज भी चिडियाँ डोली,
पहले उठने की दौड़ में सूरज से पहले आंखें खोलीं,
मन मस्त मगन थी चहक रही थी,
खुशी की खुशबू से महक रही थी,
क्योंकि अब बच्चे उसके बड़े हो गए,
उनके पर पंख परिपक्व हो गए,
किन्तु नहीं संतुष्ट थी चिड़िया,
खुद दाना लाती थी बड़िया,
दाना लेने गई थी आज,
बहुत देर मिला में मिला अनाज,
दाना लेकर घर वह लौटी,
मन में खुश थी चिड़िया छोटी,
लेकिन वापस आकर देखा,
समझ न आये हुआ है ये क्या,
वही वृक्ष हुआ धराशायी,
जिस पर उसने दुनियां बसायी,
उजड़ गया था उसका घर,
प्यारे उसके गए थे मर,
चिड़िया तो अब बिलख रही है,
ईश्वर को वह कोस रही है,
चिड़िया ने वार्तालाप सुना जब,
उसने देखा उसी ओर तब,
हाथ सजे हथियारों से,
चोट कर रहे वारों से,
चिड़िया के तो समझ आ गया,
प्रकृति का कोई कहर न आया,
बस मानव की बलि वेदी पर,वह वृक्ष था गया चढ़ाया।
- अनुराधा यादव
Sunday, December 30, 2018
मानव की बलि वेदी
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