पी कर हम घूँट जिसका,
वेग शांत करते मन का,
पवित्र जल पवित्र करता,
उद्धार प्राणियों का करता,
मैदान को जो सींचती है,
खाका भविष्य का खींचती है,
है निस्वार्थ उसकी भावना,
जो पूर्ण करती कामना,
परंतु आज एक -एक बूँद उसकी,
बन गई है जहर की,
स्वयं तो पीड़ा सहन करती है,
फिर भी हम सब की जरूरतों को पूरा करती है,
अमृत सा पानी बना दिया जहर है,
ये सब नदियों के ऊपर आदमी की महर है,
जलजीव जो हैं नदियों के,
मनमस्त हैं जो सदियों से,
अपने अस्तित्व को बचा भी न पा रहे हैं,
स्वार्थ यज्ञ में मानव के बलि चढ़ते जा रहे हैं,
अपने ही कर्मों का भोग जब मानव तो भोगता है,
तब अपने कर्म भुला के वो ईश्वर को कोसता है..........
-अनुराधा यादव
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